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Paper Title

नागार्जुन की काव्यभाषा

Article Type

Research Article

Publication Info

Volume: 1 | Issue: 3 | Pages: 22-27

Published On

June, 2024

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Abstract

भाषा अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है। इसलिए जिसकी भाषा जितनी समर्थ और सशक्त होगी उसकी अभिव्यक्ति उतनी ही प्रभावी होगी। साहित्य ही नहीं जीवन के किसी भी क्षेत्र में इसके महत्व का निदर्शन किया जा सकता है। भाषा अभ्यास और प्रयोग से सिद्ध होती है । हिन्दी साहित्य के इतिहास में कुछ साहित्यकार अपने भाषागत वैविध्य के कारण विशेष स्थान रखते हैं। हिंदी के उन्हीं लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों में से एक नाम है- वैद्यनाथ मिश्र, जिन्होंने मैथिली में 'यात्री' और हिंदी में ‘नागार्जुन' नाम से कालजयी रचनाएँ की हैं। यों तो इन्हें मुख्यतः प्रगतिवादी और मार्क्सवाद का समर्थक माना जाता है लेकिन, इनके रचनागत वैविध्य के कारण सम्पूर्ण आधुनिक हिन्दी साहित्य इनके बिना अधूरा लगता है। चाहे बात प्रयोग की हो, प्रगतिवाद की हो, भाषा की हो, यथार्थ की हो, विषय- विविधता की हो- नागार्जुन सर्वत्र ही अपनी विशेष भंगिमा के लिए जाने जाते हैं। नागार्जुन (30 जून 1911 ई.- 5 नवम्बर 1998 ई.) हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा के सबसे प्रमुख और प्रसिद्ध हस्ताक्षरों में से एक हैं। मैथिल कोकिल विद्यापति के पश्चात् मिथिलांचल के सबसे प्रसिद्ध और प्रमुख प्रमुख साहित्यकार और बीसवीं शताब्दी के कालजयी रचनाकार हैं- नागार्जुन। साहित्यकार के रूप में नागार्जुन का काव्यफलक बहुत विस्तृत है । वे अनेक भाषाओँ के जानकार और विद्वान् थे। उन्होंने मुख्यतः चार भाषाओं - हिन्दी, संस्कृत, मैथिली और बांग्ला में काव्यरचना की है। उनका अधिकांश जीवन साहित्यसाधना, स्वाध्याय और भ्रमण में बीता। प्रखर पांडित्य की सिद्धि के बावजूद उनका सम्पूर्ण साहित्य लोक और जीवन से सरल-सहज संवाद करता दिखता है । उनका व्यक्तिगत जीवन सादगी और संघर्षों की यात्रा रही है, यही सत्य और संघर्ष समर्थ भाषा के माध्यम से उनके साहित्य में अभिव्यक्त है। वे कवि थे और इसीलिए वे अपनी रचनाओं के माध्यम से लोक की भाषा में संवाद करना चाहते हैं और इसीलिए भी तथाकथित साहित्य और व्यक्तिगत जीवन के अभिजात्य से निश्चित दूरी बनाए रखते हैं।

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